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________________ कथा विभाग-३ महासती श्री चन्दनबालाजी [ २११ कि-'अब यहाँ धनावह सेठ के घर पर पहुँच कर मेरे दुख का अन्त आ गया है, परन्तु कर्म न जाने कितने कठोर है कि, वे अधिक-से-अधिक दुख दिखा रहे है।' यह सोचते-सोचते उसको ऑखो से आँसू बह चले। भगवान् का पारणा इधर भगवान् महावीरस्वामी को दीक्षा लेकर ग्यारह वर्ष हो चुके थे। अब उन्हे केवलज्ञान उत्पन्न होने मे एक वर्ष से कुछ अधिक समय शेष था। भगवान् अपने पूर्व भवो के कठोर कर्मो को क्षय करने के लिए कठोर तपश्चर्याएँ कर रहे थे। इस बार उन्होने १३ बोल का घोर अभिग्रह ग्रहण किया। द्रव्य से--१ सूप के कोने मे, २. उडद के बाकुले हो, क्षेत्र से, ३ बहराने वाली (दान देने वालो) देहली से एक पैर बाहर तथा दूसरा पर भीतर करके बारसाख (द्वारशाखा) के सहारे खडी हो। काल से ४ तीसरे प्रहर मे जब सभी भिखारो भिक्षा लेकर लौट गये हो । भाव से-बाकुले देने वाली, ५ अविवाहिता, ६ राजकन्या हो, परन्तु फिर भी ७ बाजार मे बिकी हुई हो (दासी-अवस्था को प्राप्त हो), सदाचारिणी और निरपराध होते हुए भी उसके ८ हाथो मे हथकडी और ह पैरो मे बेडी हो, १०. मूंडे हुए शिर हो और ११. शरीर पर काछ पहने हुए हो, १२. तीन दिन की भूखी १३. रो रही हो, तो उसके हाथ से मैं भिक्षा लूंगा। अन्यथा छह महिने तक निराहार रहूँगा।' इस अभिग्रह को लिए भगवान् को ५ पॉच मास और २५ पच्चीस दिन हो चुके थे। भगवान् प्रतिदिन घर-घर घूमते और अभिग्रह पूर्ण न होने से पुन लौट जाते थे। कौशाम्बी की महारानी मृगावती और महामन्त्री की स्त्री ने बहुत उपाय किया। उनके कहने से महाराजा और महामन्त्री ने भी
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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