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________________ कथा-विभाग-१. भगवान् महावीर [ १७१ गाथापति (गृहस्थ) के घर पधारे। विजय ने भगवान को विधि आदि सहित दान दिया। (दान विधि आदि के विस्तृत वर्णन के लिए सुवाहुकुमार की कथा देखो।) दान से पॉच दिव्य प्रकट हुए। गोशालक ने इस समाचार को सुनकर तथा रत्नवृष्टि प्रादि देखकर भगवान् को पहचाना और भगवान से शिष्य बनाने की प्रार्थना की । पर भगवान् उसकी प्रार्थना को स्वीकार न करते हुए मौन रहे। गोशालक की प्रार्थना स्वीकृत । चातुर्मास समाप्त होने पर कार्तिकी पूर्णिमा के पश्चात् की प्रतिपदा(एकम) को भगवान् वहाँ से विहार कर 'कोल्लाक' सन्निचेश मे पहुंचे और उन्होने बहुल ब्राह्मण के यहाँ पारणा किया। भगवान् को पुनः तन्तुवायशाला मे न लौटे देखकर गोशालक ने अपने चित्र और नेषादि उपकरण किसी अन्य ब्राह्मण को दे दिये और मुण्डित होकर भगवान् को ढूंढता हुआ वह कोल्लाक सन्निवेश मे पहुँचा। वहाँ पच दिव्य आदि देख उसने निश्चय किया-'ये दिव्य आदि मेरे धर्माचार्य भगवान् महावीर को हो प्राप्त हैं, अन्य किसी को भी नहीं । अतः भगवान् यही है। इसके पश्चात् उसने भगवान् को कोल्लाक सन्निवेश के बाहर ही पा लिया । वहाँ भी उसने भगवान से प्रार्थना की कि 'भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य है और मैं आपका अतेवासी (शिष्य) हैं।' भगवान् ने उसे जब अन्य मत के वेषादि से रहित देखा, तब उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उसके पश्चात् वह गोशालक भगवान् के साथ छह वर्ष तक रहा। गोशालक का स्वभाव व गमनागमन वह गौशालक बहुत उच्छृङ्खल (मर्यादा तोड़ने वाला) और उद्दण्ड (मर्यादाहीनता को सिद्ध करने वाला) था। कभी वह
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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