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________________ ल १६८ ] जन सुबोध पाठमाला-भाग १ वह सर्प पहले के भव मे एक तपस्वी मुनि था । वह क्रोधी था। एक बार वह पारणे मे वासी भोजन के लिए जा रहा था। सार्ग मे उसके पैर से एक मेढकी दव कर मर गयी। शिष्य के कहने पर उसने दूसरो के परो से मरी मेढकियाँ दिखाकर'कहा-'क्या ये भी मैने मारी है ?' अर्थात् जैसे ये दूसरों के परो से मर गई हैं, वैसे ही यह भी (जो स्वय के पर से दवकर मर गई थी) दूसरो के परो से मर गई है। शिप्य ने मोचा-भी ये क्रोध मे आ गये हैं, इसलिए ऐसा कहते है, पर सध्या को प्रतिक्रमण मे प्रायश्चित कर लेगे। पर तपस्वी ने प्रतिक्रमण मे उसका प्रायश्चित नहीं किया। जव शिष्य ने उसे स्मरण कराया, तो वह पूरे क्रोध मे आ गया और मारने दौडा, परन्तु बीच मे सभा आ जाने से टकरा कर उसकी मृत्यु हो गई। वहाँ से वह ज्योतिषी जाति का देव वना। वहाँ से च्यवकर वह अस्थिक और श्वेताम्बिका के मार्ग मे रहे हुए एक पाश्रम के कुलपति के घर जन्मा। उसका नाम 'कौशिक' रक्वा गया। वहाँ भो वह चड (क्रोध) स्वभाव का था। अतः उसे लाल चण्डकौशिक कहने लगे। पिता के मर जाने पर वह कुलपति बना। क्रोधी स्वभाव के कारण सभी तापस उसके ग्राम से चले गये। एक बार श्वे म्बिका के राजपूत्र इस पाश्रम की अोर आये थे। चण्डकौगिक उन्हे परशु लेकर माग्ने दौडा, परन्तु मार्ग मे खड्डा अाया। उसमे वह परशु के प्रभिमुख गिर पडा। परशु मे उसके सिर के दो भाग हो,गये । उससे वह मरकर वहो सर्प के रूप मे जन्मा था। भगवान् को देखकर उस सर्प को बहुत क्रोध याया। उसने क्रोधयुक्त दृष्टि से भगवान् को तीन बार देखा, पर भगवान् जले नही। तब उसने भगान् के अगले मे तोन चार दश
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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