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________________ १०६ । जैन सुबोध पाठमाला-भाग १ रहता, न उसका पहले वाला मूल्य ही रहता है। वैसे ही जीवन की पापी रस्सी को बीच में सामायिक कर-कर के कई स्थानो से काट दी हो और फिर भले ही उसे जोड दी हो, तो भी उसमे पाप का बल अधिक नही रहता, न पाप का पहले वाला मूल्य (भाव) ही रहता है। इसलिए पाप का वल और मूल्य (भाव) घटाने के लिए भी सामायिक उपयोगी है। अर्थात् एक मनुष्य दिन-रात पाप ही पाप करे, वह सामायिक या अन्य कोई भी धर्म-क्रिया न करे, तो उसके पाप मे जो तीन भावना रहेगी, वेसी तीव्र भावना कोई मनुष्य दिन-रात में केवले ही सामायिक करने वाला क्यों न हो, उसमें नहीं रहेगी। क्योकि जैसे अणुव्रत-गुणव्रत के न होने से उसका प्रभाव सामायिक पर पड़ता है और सामायिक की शुद्धता, मे मन्दता पाती है, उसी प्रकार सामायिक का प्रभाव २६ मुहूर्त मे होनेवाली पाप की भावना पर और , पाप के पुरुषार्थ पर कुछ-न-कुछ अवश्य पडता है और उसमे मन्दता आती है। इसलिए अणुव्रत-गुणवत धारण न हो सकने पर भो सामायिक अवश्य करनी चाहिए। प्र० कुछ बडे-बडे लोग सामायिक करके विकथा निन्दा करने लग जाते हैं। क्या यह ठीक है ? उ० · आप बालक हो, अभी अपना जीवन बनाओ। दूसरों की आलोचना करना वडों का-गुरुओ का काम है। इसका विचार वे करेंगे। हाँ, आप यह अवश्य विचार रक्खो कि-१. हम भविष्य में भी सामायिक शुद्ध करते
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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