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________________ ८२ ] उ० : चतुर्विंशतिस्तव का पाठ । प्र० इसे चतुर्विंशतिस्तव का पाठ क्यों कहते है ? उ० : इससे चौबीस तीर्थकरों की स्तुति की जाती है, इसलिए । • प्र० : 'लोक का उद्योत करने वाले' का भाव क्या है ? उ० : विश्व का ज्ञान कराने वाले जन सुवोध पाठमाला -भाग १ प्रo : यहाँ कीर्त्तन किसे कहा है ? उ० मन से १- नाम स्मरण करने को श्रीर २. गुरण-स्मरण करने को । • प्र० - यहाँ वन्दन किसे कहा है ? उ० : मुख से १. नाम-स्तुति करने को और २. गुरण- स्तुति करने को । प्रे० : यहाँ पूजन किसे कहा है ? उ. पूज्य मानकर (स्मरणीय और स्तवनीय मानकर ) काया ( पंचांग नमाकर) से नमस्कार करना । प्र० : क्या तीर्थंकरो की फूलो से पूजा करना 'पूजन' नहीं ? • कहलाता उ० : नहीं। तीर्थंकरादि के सामने जाते हुए पहला अभिगमन है - सचित्त का त्याग | जब सचित्त को लेकर तीर्थंकरादि के सामने जाने का भी निषेध है, तव सचित्त फूलों से उनकी पूजा करना 'पूजन' कैसे कहला सकता है ? प्र० : कीर्त्तन तथा वन्दन से क्या लाभ होता है ? जसे, गुणो के स्मरण तथा स्तुति से यह ज्ञान होता है कि कोनसे गुरणों वाला देव सच्चा देव हो सकता है ? तथा नामो के स्मरण तथा स्तुति से उ० : १. ज्ञान बढता है | 1 । यह ज्ञान होता है कि ऐसे गुणों वाले सच्चे देव कौन हुए ?
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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