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________________ (४३) नियंत्रों में लागू नहीं होता है । इस व्याख्या से धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि सामाइन गुणस्थान नाकियों के अपर्याप्त द्रव्य शरीर में नहीं हो सकता है किन्तु तिर्यचों के द्रव्य शरीर में अपर्याप्त अवस्था में भी हो सकता है। अपर्याप्त अवस्था का स्वरूप सर्वत्र जीव के मरने जीने से ही बन सकता है। अतः जहां भी अपर्याप्त और पर्याप्त विशेपण होंगे वहां सर्वत्र द्रव्य शरीर का ही ग्रहण होगा। यह निश्चित है और प्रकृत में तो खुलासा सूत्र और व्याख्या से स्पष्ट किया ही जा रहा है। सम्मामिच्द्वाइट्टि अस जश्सम्माट्ठ सजदा संप्रदाये बिमा पजातियाचो । (सूत्र ८८१४१६४ धवला) अर्थ-योनिमती तियेच सभ्य मिध्यादृष्टि असंयत सम्यक्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्त ही होते ह। इसी का खुलासा धत्रलाकार करते हैंकुतः तत्रैवासा मुस्पतेरभावात् । (पृष्ठ १६४ धनला अर्थ- उपयुक्त तीन गुणस्थान तिथेच योनिक्धी (द्रव्यखी) कं पर्याप्त अवस्था में ही क्यों होते हैं ? अर्थात अपर्याप्त व्यवस्था में क्यों नहीं होते ? इसका उतर पाचार्य देते हैं किन युक्त गुणस्थानों वाला ब्रोब मरकर योनिमती विर्यषों में उत्पन्न नहीं होता है। इस कथन से यह बात सिद्ध हो जाती है कि यहां पर पर्याप्त अपर्याप्त प्रकरण में गुणस्थानों का
SR No.010545
Book TitleSiddhanta Sutra Samanvaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri, Ramprasad Shastri
PublisherVanshilal Gangaram
Publication Year
Total Pages217
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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