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________________ (४३) त्पद्यन्ते तिर्यगपर्याप्तपर्यायेण सम्यग्दर्शनस्य विरोधादिति १ न विरोधः, मायास्याप्रामाण्यपसकात । क्षायिकसम्यग्दृष्टि सेवितनीर्थकरः पितसप्तप्रकृतिः कथं तिर्यक्षु दुःखभूयम्सूत्पद्यते इतिचंन्न तिरश्च नारकेभ्यो दुःखाधिक्याभावात । नारबपि सम्यग्दृष्टया नोत्पत्स्यन्ते इति चेन्न तेषां तत्रोत्पत्तितिपारकार्षापलम्मात । पृष्ठ १६३ धवला) अर्थ-मिथ्याष्टि और सासादन, इन दो गुणस्थानों की सत्ता भने ही तिथंचों की पयाप्त पार पपात अवस्था में बनी रहे क्योंकि तियचों की पयाप्त प्राप्ति अवस्था में इन दो गुणस्थानों के होने में कोई बाधा नहीं पाती है। परम सम्पष्टि जीव तो तिर्यचों में उसन्न नहीं होते हैं क्योंकि तिर्यचों की अपर्याप्त अवस्था के साथ सम्यग्दर्शन का विरोध है ? इस शह के उत्तर में धवनाकार कहते हैं कि तियचों को पर्याप्त अवस्था के साथ मा सम्यमशन का विरोध नहीं है, यदि विरोध होता तो ऊपर जो श्वां सूत्र है इस आपको मप्रमाणता ठहरेगी, क्योंकि नियंचों को अश्याप्त अवस्था में भी इस सूत्र में चौथा गुणस्थान बताया गया है। शङ्का-जिसने तीर्थकर की सेवा की है और जिसने सात प्रकृतियों का क्षय किया है (प्रतिपन) ऐसा ज्ञायिक सम्यग्दृष्टिजीव अधिक दुःख भोगने वाले तियों में कैसे पनहो सकता?
SR No.010545
Book TitleSiddhanta Sutra Samanvaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri, Ramprasad Shastri
PublisherVanshilal Gangaram
Publication Year
Total Pages217
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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