SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ सम्पन्ध पर्याप्ति के साथ अविनाभावी पानापाधिकार का नि रूपण पर्याप्त अपर्याप्त की अपेक्षासेमा वहां द्रव्य भाव दोन वेदों का यथा सम्भव समन्वय किया है। इत्यादि सभी विशे रष्टिकोण भी इस रचना से सहज समझ में पा जायगे। प्रत इस रचना को ट्रैक्ट नहीं समझना चाहिये, किन्तु सिद्धांत शाह में खचित किये गये सूत्रों का गुणस्थान मागणामों में यथायोग्य समन्वय समझने लिये अथवा षटखएडागम सिद्धांत शास्त्र का रहस्य समझने के लिये एक उपयोगी अन्य समझना चाहिये। इसीलिये इस प्रन्य का नाम "सिद्धांत सूत्र समाय" यह यथार्थ रक्सा गया है। यपि अन्य रचना अधिक विस्तृत एव बड़ी है। साथ ही पटखएडागम-सिद्धांत शास्त्र जैसे महान गम्भीर परमागम के सूत्रों का विवेपन होने से यह भी गम्भीर रवं क्लिष्ट है। फिर भी इसे सरन बनाने का पूरा प्रयत्न किया है। इसलिये उपयोग विशेष लगाने से सर्व साधारण भी इसे समझ सकेंगे। विद्वानों के लिये वो कुछ कहना ही नहीं है। वे तो इसका पर्यालोचन करेंगे। हमारा उन स्वाध्यायशीन महानुभावों से विशेष कर गोम्मटसार की हिन्दी टीका का मनन करने वाले सजनों से भी निवेदन है कि वे विशेष उपयोग पूर्वक इस प्रन्य का रकबार पाचोपांत (पूररा) स्वाध्याय अवश्य करें। HORRORaar
SR No.010545
Book TitleSiddhanta Sutra Samanvaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri, Ramprasad Shastri
PublisherVanshilal Gangaram
Publication Year
Total Pages217
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy