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________________ मारहा। यह देखकर हमें बहुत खेद होता है। इस प्रकार के पारिहत्य प्राशंन से समाज हित के बदले उसका तथा अपना माहित ही होता है। और जैन धर्म प्रचार स्थान में उपका हास एवं विपर्यास ही होता है। ओ जैनधर्म अनादिधन से घभी तक युग-प्रवर्तक तीर्थकर, गणधर, प्राचार्य, प्रत्याचार्य परंपरा से अविच्छिन्न रूप में चला मारा है। और जिसका वस्तु स्वरूप प्रतिपादक, सहेतुक अकाट्य सिद्धान्त जीवमात्र के कल्याण का पथ प्रदर्शक और पूर्वापर विरुद्ध समधर्म में उत्त. विकृतियां न्युनिसि के ही चिन समझना चाहिये। अस्तु । हमने अपने पूर्व पुण्योदय से जिनवाणी के दो प्रक्षरों का बोध प्राप्त किया है उसका उपयोग भागमानुकूल सरलता से तत्व पहण और पर प्रतिपादन रूप में करना चाहिये यही बुद्धि का सदुपयोग और ऐसा सद्भाव धारण करने में ही स्व-पर कल्याण है। भाशा हमारे इस नम्र निवेदन पर संस्कृत पाठी तथा भांगलभाषा-पाठी सभी विद्वान ध्यान देंगे। श्रदेय धर्मरस्न पण्डित नानारामजी शास्त्री का मामार या माशीर्वाद इस ग्रन्थ लिखने के पहले हमने इस सम्बन्ध में जितने नोट किये थे उन्हें लेकर हम अपने कई भाई साहेब भोमान धर्मरत्न पूज्य पं० लालाराम जी शास्त्री महोदय के पास गये थे। कों ने हमारे सभी नोटों को ध्यान से देखा, और कई बाते हमें
SR No.010545
Book TitleSiddhanta Sutra Samanvaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri, Ramprasad Shastri
PublisherVanshilal Gangaram
Publication Year
Total Pages217
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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