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________________ १०७ हम इसी लेख में पहले कर चुके हैं। भावानुगम द्वार का उल्लेख कर को मानुषी के साथ संजद पद दिया गया है यह भावसोका बोधक है परन्तु ६२ ६३व सूत्रों में भौदारिक और प्रौदारिक मिश्र काययोग तथा तदन्तर्गत पर्याति अपर्याप्ति का प्राण है, इन्ही के सम्बन्ध से उन दोनों सूत्रों का कथन है इसलिये वहां पर द्रव्य स्त्री वेद का ही प्रहण होने से सनद पद का ग्रहण नहीं हो सकता है। भागे सोनी जी ने एक हास्योत्पादक भाशा उठाई है वे लिखते है.. "०६३ की मनुपिणियां केवल दुव्यस्त्रियां हैं थोड़ी देर के लिये ऐसा भी मान लें पर जिन सूत्रों में मानुपिणियों के चौदह गुणस्थानों में द्रव्य प्रमाण, चौदह गुणस्थानों में क्षेत्र, स्पर्श, काल, अल्पबहुत्व कहे गये हैं वे मनुपिणियां द्रव्यखियां हैं या नहीं, यदि हैं तो उनके भी मुक्ति होगी। यदि वे द्रव्याखयां नहीं है तो १३३ सूत्र को मनुषिणियां द्रव्यत्रियां ही हैं यह कैसे ? न्याय तो सर्वत्र एक सा होना चाहिये।" यह एक विचित्र शङ्का और तकंणा है, उत्तर में हम कहते हैं कि-प्रसंकी तिर्यच के मन नहीं होता है परन्तु संझी तिर्यच के मन होता है। ऐसा क्यों ? अथवा भव्य मनुष्य को मोक्ष आ समता भव्य नहीं जा सकता है ऐसा क्यों ? जातिकाच पद संखो प्रसंझी दोनों जगह है। और मनुष्य पद भी मध्य अभव्य दोनों जगह है फिर इतना बड़ा भेद क्यों? न्याय तो
SR No.010545
Book TitleSiddhanta Sutra Samanvaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri, Ramprasad Shastri
PublisherVanshilal Gangaram
Publication Year
Total Pages217
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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