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________________ ६८] श्री सिद्धचक्र विधान अत्यन्त विमल सब ही विशेष, मल लेश शोध राखो न शेष ॥२॥ मणि दीप सार निर्विघ्न ज्योति, स्वाभाविक नित्य उद्योत होत। त्रैलोक्य शिखर राजत अखण्ड, सम्पूरण द्युति प्रगटी प्रचण्ड ॥३॥ मुनि मन मंदिर को अन्धकार, . तिस ही प्रकाशसौं नशत सार। सो सुलभ रूप पायो न अर्थ, जिस कारण भव भव भ्रमें व्यर्थ ॥४॥ जो कल्प काल में होत सिद्ध, तुम छिन ध्यावत लहिये प्रसिद्ध। भवि पतितन को उद्धार हेत, - हस्तावलम्ब तुम नाम देत ॥५॥ तुम गुण सुमिरण सागर अथाह, गणधर शरीख नहीं पार पाह । जो भवदधि पार अभव्य रास, पावे न वृथा उद्यम प्रयास ॥६॥ जिन मुख द्रहसों निकसी अभंग, अति वेग रूप सिद्धान्त गंग। नय सप्त भंग कल्लोल मान, - तिहुँ लोक बही धारा प्रमान ॥७॥
SR No.010544
Book TitleSiddha Chakra Mandal Vidhan Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size17 MB
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