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श्री सिद्धचक्र विधान
मन वक्र द्वार उपकर्ण ठान, विधि समारम्भको नहिँ करान । निज साम्य धर्म में रहो लिप्त, तुम सिद्ध नमों पद धार चित्त ॥ ॐ ह्रीं अकारितमनोमायासमारम्भसाम्यधर्माय नमः अर्घ्यं ॥४५ ॥ दोहा मायावी मन में नहीं, समारम्भ आनन्द । नमों सिद्ध पद परम गुरु, पाऊँ पद सुख वृन्द ॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितमनोमायासमारम्भगुरुवरे नमः अर्घ्यं ॥ ४६ ॥ पद्धड़ी छन्द
बहु विधिकर जोडै अशुभ काज, आरम्भ नाम हिंसा समाज । मायावी मन द्वारै करेय, तुम सिद्ध नमूं यह विधि हरेय ॥ ॐ ह्रीं अकृतमनोमायारम्भपरमशान्ताय नमः अर्घ्यं ॥ ४७ ॥ पूर्वोक्त अकारित विधि सरूप, पायो निर-आकुल सुख अनूप । सर्वोतम पद पायो महान, हम पूजत हैं उर भक्ति ठान ।। ॐ ह्रीं अकारितमनोमायारम्भनिराकुलाय नमः अर्घ्यं ॥ ४८ ॥ दोहा मायावी आरम्भ करि, मन में आनन्द मान । सो तुम त्यागो भाव यह, भये परम सुख खान ॥
ॐ ह्रीं नानुमोदितमायारम्भअनन्तसुखाय नमः अर्घ्यं ॥ ४९ ॥ लोभी मन द्वारे नहीं, करें सदा समरम्भ । हम अनन्तदृग सिद्धपद, पूजत हैं मनथम्भ ॥ ॐ ह्रीं अकृतमनोलोभसंरम्भअनन्तदृगाय नमः अर्घ्यं ॥ ५० ॥ लोभी मन समरम्भ को, परसों नहीं कराय । दृगानन्द भावतमा, सिद्ध नमूं मन लाय ॥ ॐ ह्रीं अकारितमनःलोभसंरम्भद्गानन्दभावाय नमः अर्घ्यं ॥ ५१ ॥