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श्री सिद्धचक्र विधान
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मति आदि भेद विच्छेद कीन, छायक विशुद्ध निज भाव लीन । निरपेक्ष निरन्तर निर्विकार, नमूं शुद्ध ज्ञानमय सिद्ध सार ॥ ॐ ह्रीं अर्हं शुद्धज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥२॥
सर्वांग चेतना व्याप्तरूप, तुम हो चेतन व्यापक सरूप। परलेश न निज परदेश मांहि, नमूं सिद्ध शुद्ध चिद्रूप ताहि ॥ ॐ ह्रीं अर्हं शुद्धचिद्रूपाय नमः अर्घ्यं ॥३ ॥
अन्तर विधि उदय विपाकटार, तुम जाति भेद वाहिज बिडार । निज परिणति में नहीं लेश शेष, नमूं शुद्धरूप गुणगण विशेष ॥ ॐ ह्रीं अर्हं शुद्धस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥४॥ रागादिक परिणतिकी विध्वंस, आकुलित भाव राखौ न अंश । पायौ निज शुद्ध स्वरूप भाव, नमूं सिद्धवर्ग धर हिये चाव ॥ ॐ ह्रीं अर्ह परमशुद्धस्वरूपभावाय नमः अर्घ्यं ॥५ ॥ दोहा
तिहूँ काल में ना डिगे, रहैं निजानन्द थान । नमूं शुद्ध दृढ़ गुण सहित, सिद्धराज भगवान ॥६॥ ॐ ह्रीं अर्हं शुद्धद्दढ़ाय नमः अर्घ्यं ॥ ६ ॥
निज आवर्तक में बसें, नित ज्यों जलधि कलोल । नमूं शुद्ध आवर्तकी, करि निज हिये अडोल ॥७ ॥ ॐ ह्रीं अर्हं शुद्धआवर्तकाय नमः अर्घ्यं ॥७ ॥ परकृत कर उपज्यो नहीं, ज्ञानादिक निज भाव । नमों सिद्ध निज अमलपद, पायो सहज सुभाव ॥८ ॥ ॐ ह्रीं अर्हं शुद्धस्वयंभवे नमः अर्घ्यं ॥८ ॥