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श्री सिद्धचक्र विधान
शाश्वत स्वश्रितसुख श्रेयस्वामी, है शान्तिसन्त तुम कर प्रणाम। अन्तिम पुरुषारथफल विशाल, तुमविलसौसुखसौं अमितकाल॥१२
ॐ ह्रीं समत्तणाणादि अष्ट गुणसंयुक्तसिद्धेभ्यो महायँ निर्वपामीति स्वाहा॥१२॥
घत्ता
परसमय विदरित पूरित, निजसूख समयसार चेतनरूपा। नाना प्रकार परका विकार, सब टार लसैं सब गुण भूपा॥ ते निरावर्ण निर्देह निरूपम, सिद्धचक्र परसिद्ध जजूं। सुर मुनि नित ध्यावें आनन्द पार्दै पूजत भरभार तजूं॥ यहाँ १०८ बार 'ॐ ह्रीं अहँ अ सि आ उं सा नमः' मंत्र का जाप करें।
इति प्रथम पूजा सम्पूर्णम्।
द्वितीय पूजा
छप्पय छन्द उरध अधो सरेफ विन्दु हकार विराजे । अकारादि स्वर्लिप्त कर्णिका अन्त सु छाजे ॥ वर्गनिपूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व सन्धिधर । अग्र भाग में मन्त्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ फुनि अन्त ह्रीं वेढ्यो परम सुर, ध्यावत अरिनागको। है केहरिसम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो॥१॥