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________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२२३ लौकिक जन या लोक में, तुम सारूँ गुण नाहिं। केवल तुम ही मैं बसैं, मैं बन्दूं हूँ ताहि ॥ ॐ ह्रीं अहँ केवलावलोकाय नमः अर्घ्यं ॥१७८॥ लोक अनन्त कहो सही, तातें नन्तानन्त। है अलोक अवलोकियो, तुम्हें नमें नित सन्त॥ ___ॐ ह्रीं अहँ लोकालोकावलोकाय नमः अर्घ्यं ॥१७९ ॥ ज्ञान द्वार निज शक्ति हो, फैलो लोकालोक। भिन्न-भिन्न सब जानियो, नमूं चरण दे धोक॥ ॐ ह्रीं अहँ विवृताय नमः अर्घ्यं ॥१८०॥ बिन सहाय निज शक्ति हो, प्रगटो आपोआप। स्व बुद्ध स्व सिद्ध हो, नमत नसैं सब पाप॥ ... ॐ ह्रीं अहँ केवलावलोकाय नमः अर्घ्यं ॥१८१॥ सूक्षम सुभग सुभावतें, मन इन्द्री नहीं ज्ञात। वचन अगोचर गुण धरै, नमूं चरन दिन-रात ॥ ॐ ह्रीं अर्ह अव्यक्ताय नमः अर्घ्यं ॥१८२॥ कर्म उदय दुःख भोगवैं, सर्व जीव संसार। तिन सब को तुमही शरण, देहो सुक्ख अपार॥ - ॐ ह्रीं अहं सर्वशरणाय नमः अर्घ्यं ॥१८३॥ चिन्तवन में आवें नहीं, पार न पावे कोय। महा विभव के हो धनी, नमूं जोर कर दोय॥ ह्रीं अहँ अचित्यविभवाय नमः अर्घ्यं ॥१८४॥ छहों काय के वास को, विश्व कहैं सब लोक। तिनके थम्भनहार हो, राज काज के जोग॥ ॐ ह्रीं अहँ विश्वभूते नमः अर्घ्यं ॥१८५ ॥
SR No.010544
Book TitleSiddha Chakra Mandal Vidhan Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size17 MB
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