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________________ - वन्देऽन्तिमांगायितबोधमूर्तीनुपाचसम्यक्त्वगुणोरुपूर्तीन् । लोकाग्रगान्विश्वविदेकभावानहंसदानन्दमयप्रभावान् ॥३॥ __ अर्थात् सिद्ध होजाने के बाद उनकी आत्माका परिणमन उनके अन्तिम शरीर से कुछ न्यून तथा रूप रस गन्धादि से रहित होरहता है । वे परिपूर्ण शुद्धता को लिये हुये ज्ञान दर्शनादि अनन्त गुणो के भण्डार हो रहते हैं। यद्यपि वे सिद्ध भगवान जाकर लोक के अग्रभाग में विराजमान हो रहते हैं मगर अपने सहज अखण्ड ज्ञान से विश्वभर के पदार्थोको स्पष्टरूप से जानते रहते हैं । इस लिये सदा आनन्दमय स्वभाव के धारक होते हैं ऐसे सिद्धपरमेष्ठियों को मेरा नमस्कार हो। अस्तु । उस सिद्धदशा का मूल भूत वीज जो सम्यक्त्व है वह कैसे प्रस्फुट होता है सो बताते हैंहँगमोहकर्म त्रितयस्यतस्य चारित्रमोहायचतुष्टयस्य । सम्यक्त्वमस्तूपशमाचनाशानिगद्यतेऽमुष्यदशासमासात् ३४ अर्थात्-जैसे जमीन के अन्दर छिपा हुवा वीज, जो है यह अनूपरपन, खाद, पानी और पलाव की मदद से समय पाकर अपनी स्मरण शक्ति के द्वारा मिट्टी को दवाकर अंकुरित हो लेता है वैसे ही कर्मो के भार से दया हुवा यह जीवात्मा भी जब पूर्वोक्त क्षयोपशम,देशना,विशुद्धि और प्रायोग्यलब्धि की मददसे काललब्धि होने पर अपनी करण शक्ति के द्वारा मोहको दवा कर सम्यक्तवान् बनता है । मोहकर्म का ह्रास उपशम, क्षय
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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