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________________ ही नही हैं तो फिर जीव के विकार का निमित्त कौन और निमिच के बिना विकार कहां से ? इस प्रकार द्रव्य दृष्टि के अपनाने पर राग द्वेष को उत्पत्तिका कारण ही जब नही रहता तो वीतरागभाव सहज पापात होता है । एवं जो भी वीतराग बने है। वे सब इसी को स्वीकार करके उसके उपर चलने से बने हैं इस प्रकार के तात्विक प्रयोजन को जो महानुभाव हृदयङ्गम कर लेता है उसका मानस कमसे कम पाषाण सदृश कठोरता को उलांघ कर मक्खन सरीखी कोमलता को स्वीकार कर लेता है । यद्यपि यह जीव जब तक कि संयम धारण नही करता तब तक अपने पूर्व कर्मोदय से प्राप्त हुये समुचित विषय भोगों को भोगता जरूर है परन्तु जैसे कोई रुग्ण आदमी रोग की पीड़ाको न सहसकने के कारण उसके प्रतीकार स्वरूप दया का उपयोग किया करता है वैसे ही यह भी उन्हें अपने काम में लाता है । फिर भी यह अपने ऐश आराम की अपेक्षा दूसरे सजनों को आराम पहुंचाने में विशेष संलग्न रहता है। अपने इस चर्म के लिये नही किन्तु धर्म के लिये सदा ही उत्करिठत रहता है अतः अपनी धाणियों को भी लात मार कर प्राणियों के भले के लिये मरने को तैयार रहता है एवं सहजतया अन्याय मार्ग से दूर रहता है क्यों कि आत्मत्वमङ्ग दधतोऽमिभृष्टि, पर्याय एवास्यवभूवदृष्टिः । सांसमेतस्यनितान्तमन्तोद्रव्येऽधुना दृष्टिरुदेविजन्तोः ३०
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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