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________________ मान कर देवे सो नहीं हो सकता परन्तु एक दूसरे के प्रभाव मे आकर उनका उचित विकार रूप परिणमन जरूर होता है जैसा कि समयसार जी में ही बतलाया है देखो रणविकुम्वदिकम्मगुणे जीवो कम्मतहेव जीव गुणे। अएणोएपणिमित्तणदुपरिणामंजाण दोरहपि ॥२॥ जैसे अग्नि और हवा इन दोनों का परस्पर संयोग होता है तो हवा के द्वारा अग्नि प्रज्वलित होती है और वही अग्नि हवा को अपने संयोग से उष्ण बना देती है यह इन दोनों का निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है वैसे ही पूर्व कर्म के उदय से जीव रागादिमान होता है और स जीव की रागादिमत्ता ही आगे के लिये पुद्गल परमाणुयें कर्मभाव को प्रात होती हैं। शा- तब तो फिर किसी की भी मुक्ति हो ही नहीं सकेगी क्यों कि कर्मों का उदय तो सहासे सबके लगा ही हुवा है उत्तर-कमी भी मुक्ति नहीं होगी सो नही. किन्तु जब तक यह जीव अज्ञान भाव को लिये हुये रहेगा तब तक मुक्ति नही होगी। यहां अज्ञान का अर्थ न जानना नहीं है क्यों कि न जानना तो किसी भी जीव में है ही नही। चाहे कोई थोड़ा जाने या बहुत ठीक जाने या बेठीक,जानता तो है ही। जानना तो जीव का लक्षण ही है वह उससे दूर नहीं हो सकता । परन्तु पर को अपना और अपने को पराया मानते रहने का नाम अज्ञान है और यह अज्ञानभाव अब तक इस जीव के साथ लगा रहेगा तब तक यह जीव कर्मबन्ध को कर्ता ही रहेगा
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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