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________________ ( ३७ ) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय का भण्डार है सचिदानन्द रूप है मुझे अब इस दुनियांदारी में फंसे रहकर, पापारग्भ करने की क्या जरूरत है, तो फिर अपने मनका निग्रह करके आगे के लिये कर्म का बन्ध करने वाली कपायों को पैदा नही होने देवे और उसके साथ साथ शरीर तथा बचन को भी अपने वश में करके अपने पहले के बन्धे हुये कर्मों को भी क्षण भर में काट डाल सकता है और दीन हीन से तीन लोक के प्रभुत्व के सिंहासन पर बात की बात मं आसीन और प्रवीण बनसकता है आत्मा से परमात्मा हो ले सकता है। अहो देखो इस आत्मा के वल की अचिन्त्य महिमा जो कि अपने आपे में नाकर उस पर जम रहने से चिरसंचित कर्मों के अभेद्य किले को एक अन्तर्मुहूर्त मे ही तोड़ फोड़ कर स्वतन्त्र साहसाह वन जाता है। दुनियांदारी का खाना पीना वगेरह कोई सीधा से सीधा काम भी क्या इतना शीघ्र सम्पन्न हो सकता है क्या ? जितना कि शीघ्र स्वरूपोपलब्धि का काम हो सकता है। फिर भी यह दुनियांदारी का भोला प्राणी अपने इस सहज काम को ठीक न मान कर बाहर के श्रमदानक कार्यों को ही सरल समझ बैठा है यही तो इसकी नादानी है। इसी से परतन्त्रता में जकड़ा हुवा है अगर अपनी समझ को ठीक करले तो फिर इस जन्ममरणादि के दुःख से छूट कर सढ़ा के लिए पूर्ण सुखी बनजा सकता है । अस्तु । चेतनागुण के' धारक इस आत्मा का नाम जीव १ उससे उलटे स्वभाव वाला' +
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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