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________________ विवाद-सूत्र १७७ ( ३३१) नियतिवाद कितने ही ऐसा कहते हैं कि ससार में जीवात्माएं नैमित्तिक अथवा अनैमित्तिक जो भी सुख-दुःख का अनुभव करती हैं, तथा समय आने पर अपने स्थान पर च्युत होती है, वह सब आत्मा के अपने पुरुपार्य से नहीं होता-नियति से ही होता है। अस्तु, जव अपने सुख-दुख की मात्मा आप विधाता नहीं है, तब भला दूसरा कोई तो हो ही कैसे सकता है? ( ३३२) जीवात्माएँ पृथक्-पृथक् रूप से जो सुख-दुख का अनुभव करती है, वह न तो स्वकृत ही होता है और न परकृत ही। यह जो कुछ भी उत्थान या पतन हुआ करता है, सव सागतिक है--नियति से है। (जव जहाँ जैसा बननेवाला होता है, तब वहां वैसा ही नियतिवश वन जाता है। इसमें किसी के पुरुषार्थ आदि का कुछ भी वश नहीं चलता।) (३३३ ) धातु-वाद दूसरे लोग ऐसा कहते है कि पृथिवी, जल, तेज और वायु -~-इन चार धातुमो (धारक तथा पोषक तत्त्वो) का ही यह रूप (शरीर तथा ससार) बना हुआ है। इनके अतिरिक्त, दूसरा कुछ भी स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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