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________________ अशरण-सूत्र १०९ ( १९३) यह शरीर पानी के वुलबुले के समान क्षणभगुर है, पहले या पीछे एक दिन इसे छोडना ही है, अत इसके प्रति मुझे तनिक भी प्रीति (आसक्ति) नहीं है। ( १९४) मानव-पारीर प्रसार है, आधि-व्याधियो का घर है, जरा और मरण से ग्रस्त है। अत में इसकी ओर से क्षणभर भी प्रसन्न नहीं होता ( १९५ ) मनुष्य का जीवन और रूप-सौन्दर्य विजली की चमक के समान चचल है । आश्चर्य है, हे राजन्, तुम इसपर मुग्ध हो रहे हो! क्यो नही परलोक की ओर का खयाल करते हो? ( १९६ ) पापी जीव के दुःख को न जातिवाले वटा सकते है, न मित्रवर्ग, न पुत्र, और न भाई-बन्यु । जब कभी दुख आकर पड़ता है, तब वह स्वय अकेला ही उसे भोगता है । क्योकि कर्म अपने कर्ता के ही पीछे लगते है, अन्य किसीके नहीं।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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