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________________ कपाय-सूत्र ( १६६ ) अनेक प्रकार के बहुमूल्य पदार्थों से परिपूर्ण यह समग्र विश्व भी यदि किसी एक मनुष्य को दे दिया जाये, तव भी वह सन्तुष्ट नहीं होगा। अहो! मनुष्य की यह तृष्णा वडी दुष्पूर है। (१६७ ) ज्या-ज्यो लाम होता जाता है, त्यो त्यो लोभ भी वढता जाता है। देखो न, पहले केवल दो मासे सुवर्ण की आवश्यकता थी; पर बाद में वह करोडो से भी पूरी न हो सकी। (१६८) क्रोध से मनुष्य नीचे गिरता है, अभिमान से अधम गति को पहुंचता है, माया से सद्गति का नाश होता है, और लोभ से इस लोक तथा परलोक में महान भय है। चांदी और सोने के कैलास के समान विशाल असख्य पर्वत भी यदि पास में हो, तो भी लोभी मनुष्य की तृप्ति के लिए वे कुछ भी नहीं । कारण कि तृप्णा आकाश के समान अनन्त है। चावल और जौ आदि धान्यो तथा सुवर्ण और पशुओ से परिपूर्ण यह समस्त पृथिवी भी लोभी मनुष्य को तृप्त कर सकने में असमर्थ है-यह जानकर सयम का ही आचरण करना चाहिए।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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