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________________ प्रमाद-स्थान-सूत्र ८९ ( १५७ ) जो मनुष्य कुत्सित स्पो के प्रति द्वेष रसता है, वह भविष्य में असीम दुस-परपरा का भागी होता है। प्रदुष्टचित्त द्वारा ऐसे पापकर्म सचित किये जाते है, जो विपाक-काल में भयकर दुस-रूप होते हैं। ( १५८ ) पसे विरक्त मनुष्य ही वास्तव में शोक-रहित है । वह ससार में रहते हुए भी दुस-प्रवाह ने वैसे ही अलिप्त रहता है, जैसे कमल का पत्ता जल से। ( १५६) रागी मनुष्य के लिए ही उपयुक्त इन्द्रियो तया मना के विपयभोग इस प्रकार दुस के कारण होते है। परन्तु वे ही वीतरागी को किसी भी प्रकार से कभी तनिक भी दुख नहीं पहुंचा सकते। (१६० ) काम-भोग अपने-आप तो न किसी मनुष्य में समभाव पैदा करते है और न किसी में रागद्वपस्प विकृति पैदा करते है। परन्तु मनुष्य स्वय ही उनके प्रति राग-द्वेप के नाना सकल्प बनाकर मोह से विकारग्रस्त हो जाता है।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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