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________________ : ५: अस्तेनक-सूत्र ( ४२-४३ ) सचेतन पदार्थ हो या अचेतन, अल्पमूल्य पदार्थ हो या बहुमूल्य, और तो क्या, दाँत कुरेदने की सीक भी जिस गृहस्य के अधिकार में हो उसकी आज्ञा लिये विना पूर्णसयमी साधक न तो स्वय ग्रहण करते है, न दूसरो को ग्रहण करने के लिए प्रेरित करते है, और न ग्रहण करनेवालो का अनुमोदन ही करते है। (४४) ऊंची, नीची, और तिरछी दिशा मे जहाँ कही भी जो अस और स्थावर प्राणी हो उन्हें अपने हाथो से, पैरो से, किसी भी प्रग से पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए। और दूसरो की विना दी हुई वस्तु भी चोरी से ग्रहण नहीं करनी चाहिए। (४५ ) जो मनुष्य अपने सुख के लिए त्रस तथा स्थावर प्राणियो की क्रूरतापूर्वक हिंसा करता है उन्हे अनेक तरह से कष्ट पहुंचाता है, जो दूसरो की चोरी करता है, जो आदरणीय व्रतो का कुछ भी पालन नहीं करता, (वह भयकर क्लेश उठाता है)।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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