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________________ ( १६२ ) पदार्थों को जब एक साथ जानता है तो किस किस के आकार होगा । परन्तु ऐसा कहने वालों को सोचना चाहिये कि पदार्थ को पदार्थ के रूप में जानना हो तो ज्ञान का पदार्थ कार में होना है, अगर सर्वज्ञ अवस्था में ज्ञान ज्ञ ेयाकार नही होता तो फिर इसका तो अर्थ यह हुवा कि वह ज्ञेय को जानता ही नहीं है । शङ्का- ठीक तो है इसी लिये तो हमारे आचार्यों ने बतलाया है कि निश्चयनय से तो ज्ञान सिर्फ अपनी आत्मा को जानता है. पर पदार्थों को जाननेवाला तो व्यवहार मात्र से होता है । और व्यवहारका अर्थ-झूटा होता है । उत्तर- भैय्या जी जो पर को नहीं जानता वह अपने आप को भी नहीं जानसकता है, क्यों कि मैं चेतन हॅू जड़ नहीं हूँ, इस प्रकार अपना विधान परप्रतिषेधपूर्वक ही हुवा करता है । ज्ञान का स्वभाव जानना है, वह अपने आपको जानता है तो पर को भी जानता है । अपने आपको आपके रूपमे श्रभिन्नता से ज्ञातृतया वा ज्ञानतया जानता है और परपदार्थों को परके रूपने अपने से भिन्न अर्थात् ज्ञयरूप जानता है । भिन्नरूप जानने का नाम ही व्यहाहर एवं अभिन्नरूप जानने का नाम ही निश्चय है । किन्तु जानना दोनों ही बातों में समान है जो कि ज्ञान का धर्म है, और वह सर्वज्ञ में पूर्णतया प्रस्फुट हो रहता है, उसी की प्राप्ति के लिये ही यह सारा प्रयास है । वह सर्वज्ञता वीतरागता से प्राप्त होती है, वीतरागता का जनक
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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