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________________ (१६०) लेलिया जावे । संसारावस्था में श्वासोच्छासादिमज्जीवत्व होता है, तो सिद्धावस्था में तद्रहितजीवत्व हुवा करता है । जब जीवत्व मे ही भेद हुवा तो सम्यक्त्वादिक जो उसके विशेष है उनमें भेद होना अवश्यंभावी है । जैसे किसी रत्न को डिविया मै बन्द किया हुवा होता है तो उसके साथ उसका तेज भी उस डिबिया में बन्द रहता है, रत्न को खुला करने पर ही उसका उद्योत खुला होसकता है । अस्तु । उपर्युक्त सिद्धपरमात्मा का ग्वरूप निर्देश करते हुये अब निम्नवृत्त मे अन्तमङ्गलरूप से नमस्कार किया जाता हैमम्यक्त्वस्यपृथुप्रतिमानं नित्यं निजदृग्ज्ञाननिधानं अपिस्फुटीकृतविश्वविधानं नौमितमां कृतकृत्यानिदानं।१६ अर्थात्-जो ठीक सचाई की मूर्ति बने हुये हैं, निरन्तर अपने आपको तो देखने जाननेवाले हैं ही फिर भी दुनियांभर की बातों को देखते जानते हैं, किन्तु करने योग्य कार्यों को करचुके हुये हैं, ऐसे परमेष्ठि को हमारा बारम्बार नमस्कार हो। मतलब यह कि स्वपर प्रकाशकपन आत्मा का असाधारणगुण है, वह इतर पुद्गलादि में न होकर हर आत्मा मे सामान्यतया विद्यमान है। परन्तु संसारस्थ अवस्था मे यह आत्मा अपने आपको न देखकर खुद को भुलाकर औरों की तरफ देखा करता है ताकि संकल्प विकल्प में पड़कर इसका उपयोग क्रमिक बना हुवा रहता है। ज्ञानीपन की अवस्था में और तरफ से हटकर
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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