SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १५५ ) यह बात ठीक ही होजाती है कि सम्यग्दृष्टि जीव के जब तक चारित्रमोह का सद्भाव रहता है तब तक उसका सम्यक्त्व सराग होता है और चारित्रमाह के अभाव में यह वीतरागमम्यक्त्व होलेता है । एवं सरागदशा में उसके सत्कर्मचेतना सथा कर्मफलचेतनारूप अज्ञानचेतना होती है किन्तु वीतरागदशा में ज्ञानचेतना । इस पर फिर शलाकार कहता है किइग्मोनाशाननुजायमानं सुदृक्त्वमेकंसुविधानिधानं । कुतोऽत्रभोरकविरक्तनाम-भेदंगुणेवस्तुतयेतियामः ॥७६॥ अर्थात्- आपने कहा सो तो सुना बाकी सम्यक्त्व तो वही एक है जो कि तीन तो दर्शनमोह की और चार अनन्तानुवन्धि की इन सात प्रकृतियों के अभाव से हुवा है और जिसके कि होने से यह आत्मा मोक्ष का पात्र होलिया या होजाता है । उसमे सरागता और वीतरागता जो होती है वह तो इतनी ही कि जो रागसहित हो या चारित्ररहित वह तो सराग और जो रागरहित वा यथार्थचारित्रसहित वह विरागसम्यक्स्य । सो यह तो वैसा ही भेद हुवा कि देवदत्त, यज्ञदत्त सहित हो या उससे रहित अकेला हो सो यह तो सिर्फ व्यपदेशात्मक भेद आया वास्तविकक्याभेद हुवा ? कुछ भी नही हुवा । अत्रोच्यतेस्पष्टतयामयेदंदृग्ज्ञानवृतोपुनवस्तुभेदः । विवेचनैवात्मनिदर्शनेनज्ञानेनवृशेनकिलेत्यनेनः ।।७७॥ अर्थात- उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर यह कि श्रद्धानज्ञान
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy