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________________ । १३८ ) प्रतीत होता है वैसे ही श्रेणि स्थित आत्मा भी अपने आप में होने वाले रागांश को अल्प से अल्पतर करते हुये विशुद्ध बनता चला जाता है एवं इसका उपयोग श्रेणि के अन्त में जाकर पूर्ण शुद्ध बन पाता है ऐसा श्री जिनभगवान का कहना है । तो फिर श्रेणि मध्यवर्ति अष्टमादि गुण स्थानों में जो शुद्धोपयोग कहा गया है सो क्या गलत बात है ? इसका जवाव नीचे दिया जा रहा है रागित्व मुज्जित्य तदुत्तरत्र शुद्धत्व माप्नोति किलेवमत्र । शुद्धोपयोगे गणनाष्टमादि-सूक्ष्मस्थलान्तं चिमुनान्यगादि ७१ अर्थात्-श्री सर्वज्ञदेव ने बतलाया है कि अष्टमगुणस्थानसे लेकर दशम सूक्ष्म सम्परायगुणस्थान तक के जीव अपने रूपमें तोराग युक्त होते है अतः शुद्धोपयोगी नही कहे जासकते मगर अपने उत्तर काल मे नियम से राग को त्याग करके शुद्धत्व को स्वीकार करने वाले होते हैं इस लिये उनके शुद्धोपयोग कहा जावे तो ठीक ही है राजा होनहार राजाके लड़केको भीतो राजा कहा जाता है मतलब कि भावनिक्षेपापेक्षयातो श्रेणिस्थ जीव शुद्धोपयोगी नही, विशुद्धोपयोगी होते हैं किन्तु द्रव्यनिक्षेप से उन्हें शुद्धोपयोग वाला माना गया है। इस पर प्रश्न हो सकता है। कि चतुर्थादिगुण स्थान वाले भी आगे चल कर तो शुद्धोपयोगी बनेगे फिर उन्हे शुद्धोपयोगी क्यों नहीं कहा गया इसका उत्तर निम्न छन्द में दिया जा रहा है
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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