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________________ (३.) संसारी जीव इस शरीर को आप रूप या अपना मानता है इस लिये इसमें वात पितादि की हीना धिकता से गड़बड़ होती है तो इस जीव को दुःख होता है अतः डरता है परन्तु सम्यक्त्वी जीव तो आत्मा को शरीर से बिलकुल भिन्न अनुभव करता है | अतः शरीर के विगाड़ में उसका कोई भी बिगाड़ नही फिर उसे डर ही क्या कुछ नहीं। मोही जीव धन, मकान वगेरह को छापने मान कर उन्हें बनाये रखना चाहता है शोचता है कि इन्हे कोई चौर, लुटेरा लेजायगा तो मैं क्या करूंगा, उससे मैं इन्हे कैसे बचा सकूंगा, मेरी खुद की तो इतनी शक्ति नहीं है और दूसरा मेरा कोई सहायक नहीं है जो कि मेरी रक्षा करे एवं ऐसा कोई गुप्त स्थान भी नही है जहां पर कि मैं इन्हें छुपा कर रक्खू इत्यादि । किन्तु निर्मोही वैराग्यशाली जीव के विचार मे सिवाय आत्मज्ञान के उसका और कुछ होता ही नही, ज्ञानको कोई चुरा नही सकता है न कोई उसका कुछ विगाड़ कर सकता है बल्कि उसकी आत्मा मं तो दूसरा कोई कभी प्रवेश ही नही कर सकता फिर उसे डर कैसा | संसारी जीव अपने शरीर की उपज को अपना जन्म और उसके नाश को अपना मरण मानता है जो कि श्रवश्यंभावी है अतः हर समय भयभीत बना रहता है । किन्तु निर्मोही जीव के अनुभव में तो उसकी आत्मा अजर अमर है उसका कभी मरण हो नही सकता वह तो सदा स्वयं जीवनमय है अतः उसे मरण का भय भी क्यों हो । अज्ञानी
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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