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________________ ( १३६ ) - प्रमत्त भाव क्रम से कहते है परन्तु इन दोनों तरह के भावों से दूर होकर रहने वाला बिलकुल हेयोपादेय पन से रहित परमोदा सीन भाव एक और भी हो सकता है जिस को शुद्ध भाव भी कहते हैं जैसा कि श्री समयसार जी में कहा है__ण विहोदि अप्पमत्तो णं पमत्तो जाणगोदुजो भावो। · एवं भणन्ति शुद्धं णावो जो सो उसो चेव ॥६॥ . उस शुद्ध आम भाव का नाम, ही भेदविज्ञान है इसी को स्वरूपाचरण भी कहते हैं जिसको कि प्रास करने के लिये उससे पहले सातिशयाप्रमत्त भाव की आवश्यकता होती है जो कि सातिशयाप्रमत्त भाव उस शुद्ध भाव की प्राप्ति के लिये, खेती के लिये खाद और पानी का सा कार्य करता है जिसमें और सब कल्पनाओंको दूर करके आत्मस्वरूप को उपादेय रूप से स्वीकार किया,जाया करता है मतलव यह कि इस के अनुभव में इस समय आत्मा शुद्धरूप मे न आकर उपादेयरूप रागांशयुक्त आता है जैसे कि सुरू २ में बीज मिट्टी के भीतर ही भीतर मिट्टीको साथमें लिये हुये अस्पष्टरूपमे फूट पाता है यानी इस के अनुभव में शुद्धाल्मा-निकल परमात्मा श्री सिद्ध परमेष्ठीतोध्येय और आप उनका ध्यान करने वाला होता है सिर्फ इतना सा भेदभाव रहजाता है । इसी को रूपातीत धर्मध्यान कहते हैं जो कि प्रशस्त संहननयुक्त मुनि की दशा में ही हुवा करता है क्यों कि इसके लिये सुदृढ़ रूपमें मन, वचन, कायकी निश्चलता की जरूरत होती है । अस्तु । यह रूपादीत धर्मध्यान ही अपने
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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