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________________ ( १२६ ) होजाने पर.अनन्वानुवन्धि कषाय का तो अभाव होजाता है अतः उससे होने वाला बन्ध तो नही किन्तु अप्रत्याख्यानावर कपाय होनेसे उससे होनेवाला और साथमें प्रत्याख्यानावरणादि से होनेवाला बन्ध भी होता रहता है। श्रावक होजान पर जब कि अप्रत्याख्यानावरण का भी अभाव होलिया तो उसके सिर्फ प्रत्याख्यानावरणानि जन्य स्वल्पबन्ध होना ही वाकी रहता है वही होता रहता है । हां वह वात दूसरी कि प्रत्येक कषाय के भी असंख्यात लोकप्रमाण भेद होते हैं अतः उनमे आपस में हीनाधिकपना और तनन्य होनाधिक बन्ध भी होता है परन्तु ऐसा कभी नहीं होसकता कि एकत्रती श्रावक के अवती सरीखी तोत्र कपाय वा वैसा तीप्रबन्ध होने लगे। शङ्का- हम प्रत्यक्ष देखते हैं एक व्रती आदमी के कभी कभी साधारण गृहस्थ से भी अधिक क्रोधादि हो आते है। उत्तर- ऐसा जो देखा जाता है वह तो लेश्याकत विकार है। कपाय के रदय से होनेवाली मनक्वन और काय की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है वह कृष्ण, नील,कापोत और पीत,पद्म,शुक्ल के भेद से छः प्रकार की होती है। इनमें से अबत अवस्था में भी कृष्ण से लेकर शुक्ल तक और व्रतीपन मे भी पीतलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक यथासम्भव यथावसर वदलती रहती हैं । सो कमी किसी अवती के मन्दलेश्या और किसी व्रती के तीब्रलेश्या का होना बड़ी बात नहीं, फिर भी अगर वह सचा व्रती है तो गुस्से में आकर भी अव्रती का सा कार्य करने
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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