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________________ (१२५) यदा द्वितीयाख्य कपाय हानिःसुश्रावकत्वं लभते तदानीं न्यायाचिते भोगपदेऽपकर्षस्सन्तोष एवास्यवृथा न तपः ६३ अर्थात्- अब जब कि उपर्युक्त अभ्यास के बल पर अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोम नामक दूसरी कपायों का भी क्षयोपशम होलेता है वो यथाविधि अणुव्रतों के पालन करने में तलर होकर सप्टरूप में श्रावक बनता है जिससे कि न्यायोचित विषयभोग भोगने में भी इस की वृत्ति अव सीमित होलेती है । जैसे मानलो कि अबत अवस्था में तो अपनी सी मे रात में या दिन में भी जब चाहे नव वतिया लिया करता था मगर अब दिन में कभी भी न याद करके रात्रि में ही उसके साथ प्यार करने का दृढ़ संकल्प अपने मनमें रखता है इस प्रकार पूर्वकाल की अपेक्षा से श्रय कुछ सन्तोप पर आजाता है । अपने किये हुये संकल्प से सिवाय की बात को तो कमी भी याद ही नहीं करता किन्तु अपने संकल्पोचित विषय में भी व्यर्थ की आशा, तृष्णा से बचने की चेप्टा रखता है । एवं मुसका मन दृढतर बन जाता है ताकित्रियं श्रितस्यापिततोऽल्प एवाप्तपंचमस्येति वदन्ति देवाः चतुर्थ भूमौ भजतो जिनश्च वन्धोयथास्यारिस्थति भागमशः ६४ अर्थात-जिस प्रकार मिथ्याइष्टि की अवस्था से
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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