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________________ ( ११८ ) - - - - होता है। आगे उपगृहनांगअशक्तभावोत्थसधर्मिदोषनाच्छादयन्नेष गुणककोशः अकण्टकं मत्पथमातनोतुन कोऽपि कष्टानुभवं करोतु ५८ ___अर्थात्-प्रायः ऐसा देखने में आता है कि जो जैसा होता है वह दूसरों को भी वैसा ही समझता है जो चिलम पीने वाला है वह उस चिलम को भट दूसरे के सामने में भी कर देता है कि लो पीवा, भलेही वह नही ही पीता हो । बस तो सम्यग्दृष्टि जीव खुद गुणवान होता है अतः औरों को भी गुणवान ही समझता है, उसका विचार उनके गुण की ओर ही मुकता है । वह यह भी जानता है कि भूलजाना या फिसल पडना कोई बड़ी बात नही है, मैं भी वो भूला करता हूं। शरीरधारी होकर ऐसा तो कोई विरला ही हो सकता है जो कि भूलता ही न हो उसके तो आगे सबको शिर झुकाके चलना पड़ता है वाकी वो सभी भूल के भण्डार है। अतः जो कोई आदमी सत्पथ का श्रद्धालु वो हो किन्तु उसपर समुचितरूप से चलने में अशक्त हो, वे समझी और आलस्य के कारण ठीक न चल सकरहा हो इस लिये उसमें कोई प्रकार की कमी आगई हो तो उस कमी को लेकर उसकी अवज्ञा नहीं करने लगजाता बल्कि उनको न याद करते हुये उसके अन्दर होने वाले शेप गुणों को लेकर उसका आदर करता है। दूसरे भी कोई अगर उसकी निन्दा करने लगते हैं तो उन्हें भी समझाता है कि भाई
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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