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________________ ( ११६ ) - - केवल भूल भरा बालकपन है, बस ऐसे ही गृहस्थ अवस्था में तो समुचित कपड़े पहनना, धनार्जन करना इत्यादि बातों के सहारे से ही अपने उपयोग को निर्मल किया जाया करता है मगर त्याग वृत्ति पर आकर भी उन्हीं बातो की अभिलापा को लिये रहना, निदान करना भूल है सो ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव कमी नही करता अतः निःकांचित होता है । अस्तु । अब नीचे निर्विचिकित्सांग का वर्णन करते हैं न धर्मिणो देहमिदं विकारि दृष्टाभवेदेषघृणाधिकारी गुणानुरागात् करोतु वेश्या-वृत्यप्रणीति रुचयेऽस्तु या ५६ ___अर्थात्- मिथ्यादृष्टि जीव अपने शरीर की विष्टा वगैरह को देख कर तो नही मगर दूसरों की विष्टा वगेरह को देखकर नाक सिकोड़ने लगता है, यह नही शोचता कि इसमे घृणा करने की कौनसी बात है जैसा शरीर इनका वैसा ही मेरा भी तो है । परन्तु अपनी तो विष्टा भी चन्दन और दूसरे का खकार भी विकार इस ऐसे विचार को लेकर वह अपने सिवाय औरों से मुह मोड़कर चलता है । परन्तु सम्यगदृष्टि शोचता है कि शरीर का तो परिणमन ही ऐसा है यह मल से ही तो उपजा है और निरन्तर मल को ही बहाता भी रहता है फिर इनका शरीर अगर मलीन है तो इसमें कौनसी नई बात है, इनकी आत्मा तो वही सम्यग्दर्शनादिरूपधर्मयुक्त है ऐसे विचार से वह धर्मात्मा जीवो की वैयावृत्य करने में
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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