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________________ ( ११४ ) सो भी नहीं कहा जा सकता इस प्रकार के विचार का नाम शङ्खादोष है सो सम्यग्दृष्टि के अन्तरङ्ग में कमी नही हो सकता क्योंकि वह यह अच्छी तरह जानता है कि जैनमत सर्वनप्रणीत है उसमें गलती के लिये जगह कहां और बाकी के मत अल्पज्ञाके द्वारा अपने अपने अन्दाज पर खड़े किये हुये हैं वहां पर सत्य का लेन देन क्या । और अगर जैन धर्म से मिलती हुई बात धुणाक्षरन्याय से वहां कही आभी गई तो उसका वहां मूल्य भी क्या है कुछ नही । अतः जैनमत और इतरमतो में परस्पर इतना अन्तर है जितना कि सोना और पीतल में होता है। हां यह भले ही कहा जासकता है कि वर्तमानमें जैनगन्थके नाम से कहे जानेवाले कुछ शास्त्रों में कितनी ही परस्पर विरुद्ध ऐसीबेतुकी बात है जिनसे कि दिगम्बर श्वेताम्बर सरीखा जटिल भेद खड़ा हो रहा है, परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव अपनी बुद्धिरूप कसोटी-पर कसकर उसमे से भी खरे और खोटे की पहिचान सहज में कर सकता है. अस्तु आगोनिःकांक्षिताङ्गको बतलाते हैं अपथ्यवद् दुःखविधेरपेतु लग्नः सुखे चागदतां समेतु सांसारिकरुग्ण इसायमार्यः प्रवर्तने दौम्थ्य मियद्विचार्य ५५॥ अर्थात् कांक्षा के न होने का नाम निःकाक्षित अङ्ग है जिसका कि यहां पर वर्णन सुरू हो रहा है । भोग ही सुख देने वाले हैं ऐसा शोचकर उनके पीछे पड़े रहना सो कांक्षा कहलाती है। मिथ्या दृष्टि जीव मानता है कि इन भोगों में ही सुख है
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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