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________________ होने पर जीव की कैसी धारणा होती है उसको बतलाते हुये लिखा गया है कि- सम्यग्दष्टिजीव ऐसा विश्वास करता है कि मेरी आत्मा इस शरीर मे होकर भी इस शरीर से भिन्न है और सच्चिदानन्दस्वरूप है । ५१ वे श्लोक मे लिखा है कि सम्यग्दृष्टिजीव का - जो जैसा करता है वह वैसा स्वयं भरता है, इस प्रकार का अटल विश्वास होता है । फिर ५२ वे श्लोक मे बतलाया है कि- तत्वार्थ का ठीक ठीक श्रद्धन होना सग्यग्दर्शन, ठीक ठीक जानना सम्यग्ज्ञान और तत्वार्थ के प्रति उपेक्षाभाव होना सो सम्यक् चारित्र है। जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, सम्बर, निर्जरा और मोक्ष इस तरह से तत्व सात होते है । सम्यग्दृष्टि जीव को तत्वो का ठीक श्रद्धान होता है । अतः आत्मा और शरीर को जुदाजुदा देखता है शरीर को जड और आत्मा को ज्ञानमय मानता है । ऐसा ही अपने व्यवहार में लाता है, अतः सात वेदनीय के उदय में हर्ष तथा च श्रसात वेदनीय के उदय में शोक नहीं करता । समताभाव रखता है । उसका प्राणीमात्र के प्रति प्रेमभाव रहता है । और उसकी कषाय बहुत मन्द होती है । इस प्रकार आदरणीय क्षुल्लक जी महाराज ने इस ग्रन्थ में भली भांति स्पष्ट कर दिखाया है । जैन समाज हिसार का पुण्य का उदय था कि श्री चुल्लक जी महाराज ने वीर निर्वाण संम्बत् २४८२ में चतुर्मास हिसार में किया और हिसार समाज की प्रेरणा पर आपने इस प्रन्थ को लिख कर प्रकाशित करने की अनुमति प्रदान की, इस अहोभाग्य समझती है। देवकुमार जैन सम्पादक - मातृभूमि, हिसार के लिये यहां की जैनसमाज अपना 'महावीरप्रसाद जैन एडवोकेट
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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