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________________ ५४ ] सम्यक् आचार कुगुरु प्रोक्तं जेन, वचनं तम्म विस्वामन । विस्वामं जेन कर्तव्यं, ते नरा दुर्गति भाजनं ॥९०॥ जो कुगुरु के मुख से निकलते, कटु वचन के ब्याल हैं । वे हैं न रे ! विश्वासभाजन, व्याल तो वस काल हैं ॥ दुर्भाग्य से विश्वास उन पर, जिन नरों ने कर लिया । उनने अनन्तानन्त भव के, पान से उर भर लिया ॥ कुगुरुओं के मुख से जो उपदेश निकलते हैं, वे सम्यक् न होने के कारण कदापि ग्राह्य नहीं होते। जो मनुष्य उनकी वचनावली पर विश्वास कर लेता है; उनके उपदेश को सश्रद्धा ग्रहण कर लेता है, वह अनेकों दुर्गतियों के पात्र बनने का भार अपने कंधों पर रख लेता है। कुगुरु ग्रंथ मंजुक्तं. कुधर्म प्रोक्तं सदा । असत्यं सहितं हिंसा, उत्साहं तस्य क्रीयते ॥११॥ जो अन्त रंग वहिरँग परिग्रह के विपुल भण्डार हैं । ऐसे कुगुरुओं के कथन, होते सदा सविकार हैं । जिस धर्म का इन कुगुरु से, मिलता हमें उपदेश है । वह "नित असत् पथ पर बढ़ो" करता यही निर्देश है ।। अनेकानेक परिग्रहों से संयुक्त जो खोटे गुरु होते हैं, वे सदा कुधर्म का ही उपदेश दिया करते हैं। उनका उपदेश असत्य बातों से परिपूर्ण रहता है और वह मानव को उत्तरोत्तर असत् पथ की ओर अग्रसर किया करता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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