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________________ सम्यक् आचार [ ४९ अनृतं उत्साहं कृत्वा, भावना असुहं परं । माया अनृत असत्यस्य, कुगुरुं संसार अस्थितं ॥८॥ मन के परों पर कुगुरु उड़ते, दूर और सुदूर हैं । पर जब न फलती कामना, होते दुखों से चूर हैं । इस तरह माया मोह की, पीते सुरा की प्यालियाँ । वे छानते रहते सदा, इस विशद भव की नालियाँ ।। मन रूपी घोड़े पर सवारी करकं खोटं गुरु अपने उत्साह को प्रनिपल द्विगुणित बनाते हुए, संसार की नित नई सैर करत है, किन्तु क्या यह उन्नाह से किया हुआ काम किमी सब का देनेवाला होता है ? नहीं ! फल यह होता है कि जब मनोवांछिन कामना नहीं फलनी, तब ये कुगुरु अनेकों प्रकार के संकल्प विकल्प परिणाम करते है और माया, मोह और अमत्य आचरण के पात्र होने से अन्न में अनंत काल नक मंमार मागर में परिभ्रमण किया करते हैं। आलापं अनुहं वाक्यं, आरती रौद्र मंजुतं । क्रोध लोभ मयं मानं, कुलिंगी कुगुरुं भवेत् ॥८१॥ जो कुगुरु हैं, जिनके मलिन कुत्सित कुलिंगी वेश हैं । उनके कपायों से भरे, होते हृदय के देश हैं । वे मूढ क्या हैं, अशुभतम आलाप के भण्डार हैं । गंद्रात से उनके सभी होते, सने व्यवहार हैं । जो कुगुम होन है व मुग्य से कटु शब्दों का उच्चारण करते हुए दिग्याई देते हैं: आन और रोद्र अपध्यानों का व चिन्नवम करते है: क्रोध, मान, माया, लोभ ये जो चार कपायें होती हैं, उनके व भण्डार हात है और परिग्रहों से लदे हुए अशुभ उनके वेश होते है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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