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________________ २८] सम्यक आचार परमानंद में दिम्टा, मुक्ति स्थानेषु तिस्टिते । मो अहं देह मध्येषु, मर्वन्यं नास्वतं धुवं ॥४४॥ the iho she सिद्ध प्रभो हैं सिद्ध भवन में, परमानन्द मगन हैं । समकित-समता-सुरसरिता मय, उनके युग्म नयन हैं । मैं भी तो हूँ सिद्ध कि मेरा, अंतर सुखसागर है । मैं ध्रुव, मैं सर्वज्ञ, देह-देवल मेरा आगर है ॥ परम आनन्द के नन्दननिकुंज में विहार करने वाले जो सिद्ध भगवान हैं, व मोक्षपुरी में वाम करत है; व सर्वज्ञ हैं, शाश्वत हैं, ध्रव है। मैं भी इन समस्त दिव्य गुणों से विभूषित हूँ। अंतर इतना ही है कि सिद्ध भगवान मुक्तिनगर के वासी है और मेरा मंदिर अपने देह-देवल में ही है। दर्मन न्यान संजुक्तं, चरखं वीर्ज अनन्तयं । मय मूर्ति न्यान नं सुद्धं, देह देवलि तिस्टिते ॥४५॥ अमित ज्ञान दर्शन के धारी, अमित शक्ति के सागर । वीतराग निस्सीम निराकुल, पुण्य आचरण-आगर ॥ ज्ञानमूर्ति, निमूर्त, निरन्तर घट घट मय अविनाशी । ऐसे श्री जिन मेरे तन के, देवालय के वासी ॥ जो परमात्मा अनन्त दर्शन और अनन्त ज्ञान के सहित अनन्त शक्ति और वीतराग चारित्र को धारण करने वाले हैं; जो निर्मूर्त और परम पवित्र ज्ञान के भण्डार हैं, वे किसी दूसरी जगह नहीं बसते, उनका मन्दिर मेरे इस देह-देवल में ही है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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