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________________ संसार : और यह कैसे मिटे? [ १५ से ४६ तक ] “इष्टार्थोघदना (वा) प्त तद्भवसुखक्षाराम्भसि प्रस्फुरमानामान स दुःखबाड़वशिखा संदीपिताम्यन्तरे । मृत्युत्पत्तिजरातरंगचपले संसारपोरोणवे, मोहग्राहविदारितास्य विवराहरे चरा दुर्लभाः ॥" यह संसार एक समुद्र के समान है ! किम तरह ? इष्ट विषयों से उत्पन्न हुआ सांसारिक सुख ही इस समुद्र का खारा जल है, जिसके पीने से कभी भी प्यास का अंत नहीं होता। नाना प्रकार के मानसिक दुःखों का समूह ही इस समुद्र के बीच उठो वाला बड़वानल है, जो इसके बीच हिलोरें लेने वाले सुख-रूसी जल को नित्य प्रति तप्तायमान करता रहता है, और जन्म, मरण तथा जरा-ये ही इस समुद्र की तरंगें हैं, जो इस समुद्र के जल को नित्य प्रति अस्थिर और चपल बनाया करती है । ऐसे संसार-रूपी भयानक समुद्र के बीच में वसने वाले मोह रूपी मगर से जो पुरुष बचते हैं उनकी संख्या बहुत ही थोड़ी है। _ - आचार्य गुणभद्र । 卐
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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