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________________ १० ] सम्यक् आचार देव, गुरु, शास्त्र देवं गुरं श्रुतं वन्दे, न्यानेन न्यानलंकृतं । वोच्छामि श्रावगाचारं अविरतं संमिक दिस्टितं ॥ १४ ॥ " 온 जिन विभूतियों के ज्ञानों से, पाता स्वयं ज्ञान श्रृंगार । ऐसे देव, शास्त्र, गुरु को हो, नमस्कार नित बारम्बार || अत्रत सम्यग्दृष्टीजन के हों कैसे आचार-विचार ! इसी विषय को ले कहता हूँ, परम पवित्र श्रावकाचार ॥ जिनके ज्ञान को पाकर स्वयं ज्ञान भी कृतकृत्य हो जाता है, ऐसे उन मोक्ष - पथ के आधार, सनदेव, सद्गुरु और सत्शास्त्र को मेरे कोटि कोटि प्रणाम हों । अत सम्यग्यदृष्टि के कैसे आचार विचारहों, इस दृष्टि को प्रमुख स्थान देकर, मैं श्रावकाचार का कथन प्रारम्भ करूँगा । अब इस
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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