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________________ <] सम्वक आचार गुरु आरति रौद्र, परिन्याजं, मिथ्यात् त्रय न दिस्टिते । सुद्ध धर्म प्रकासीभूतं, गुरु त्रैलोक वंदितं ॥१०॥ आर्त रौद्र भ्रमरों को हैं जो, चंपक के से निर्मम फूल ! दर्शन मोह नष्ट कर जिनने, ध्वंस किये भव भव के शूल ॥ निज स्वरूप में दृढ़ होकर जो, करते भव भव का कंदन | ऐसे जगतपूज्य सद्गुरु का करता हूँ नितप्रति वंदन || और रौद्र, आत्मा की शान्ति भंग करने वाले, ये दो ध्यान, जिनके चिन्तवन में नहीं आते, तीन प्रकार के मिध्यात्व जिनसे सर्वथा दूर हो गये हैं, और शुद्ध आत्मिक धर्म ही जिनका प्राण है, ऐसे जगत्पूज्य सद्गुरु या सत्साधु की मैं वन्दना करता हूँ । जिनवाणी सरस्वती सास्वती दिस्टं, कमलासने कंठ अस्थितं । उवं हियं श्रियं सुद्ध, तिअर्थ प्रति पूर्णितं ॥ ११ ॥ श्री जिनेन्द्र के हृदय - कमल में, जो सम्यक् विधि से आसीन । दृश्यमान होते हैं जिसमें, ओम् ह्रीं श्री नित्य नवीन ॥ द्वादशांग हो, हुई प्रस्फुटित, जिसकी श्रुतमय शुचितम धार । जिसके कणकण में 'कलकल' कर, बहता आत्म-तत्व का सार ॥ " aarग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी भगवान के हृदय कमल में जो किल्लोल किया करती है, जो ॐ ह्रीं श्रीं इन तीनों की आगार है और जिसमें रत्नत्रय से परिपूर्ण आत्मतत्व प्रतिपल निनाद किया करता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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