SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ = सभ्यक् विचार= ममलं ममल सरूवं, न्यान विन्यान न्यान सहकारं । जिन उत्तं जिन वयनं, जिन सहकारेन मुक्तिगमनं च ॥२०॥ जिनके अमृत वचन मोक्ष से, हस्तमलकवत् जो त्रिभुवन के ऐसे जिन प्रभु भी यह कहते, आत्म-ज्ञान ही पंच ज्ञान के, मृदु फल के दायक हैं । घट घट के ज्ञायक हैं ॥ चेतन अधिकारी है । पथ में सहकारी है ॥ जिनके मृत पी वचन मोक्ष का सा मधुर फल देने वाले हैं तथा जो त्रिभुवन के घट घट के ज्ञाता हैं, ऐसे जिनेन्द्र प्रभु भी केवल एक ही बात कहते हैं और वह यही कि हे भन्यो ! तुम्हारे घट में जो आत्मा का वास हैं तुम उसी के ज्ञान गुणों में तल्लीन होकर केवल उसी का मनन करो, क्योंकि वह आत्मा चेतनता से युक्त एक निर्विकार पदार्थ है, तथा केवलज्ञान की उत्पत्ति भी आत्मज्ञान से ही होती है । पटुकाई जीवानां क्रिया सहकार ममल भावेन, सत्तु जीव सभावं, कृपा सह ममल कलिष्ट जीवानं ॥ २१॥ अनिल, अनल, जल, धरणि, वनस्पति, औ त्रस तन में ज्ञानी ! पाये जाते हैं वसुधा पर सच संसारी प्राणी ॥ इन जीवों पर दयाभाव ही, समताभाव कहाता । चेतन का यह चिर स्वभाव है, भाव- विशुद्ध बढ़ाता ॥ पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन और वनस्पति इन सबमें तथा त्रस पर्यायों में अगणित षट्कायिक जीवों का वास है। इन जीवों पर दया भाव करना ही समता भाव कहलाता है और यह समता भाव चेतन का चिर-स्वभाव है जिसके बल पर भावविशुद्धि में नितप्रति वृद्धि होती रहती है। पटुकाय के सभी जीवों को अपना शरीर मोह के वशीभूत इष्ट लगता है, उसमें दुःख का भान कराने का नाम हिंसा है और सुख साता का भान कराना दया करना है ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy