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________________ सम्यक विचार = काम्म सहावं विपनं, उत्पन्न षिपिय दिष्टि सद्भाव । चेयन रूव मंजुत्तं, गलियं विलयंति कम्म बंधानं ॥६॥ कर्मों का नश्वर स्वभाव है, जब वे खिर जाते हैं । क्षायिक-सम्यग्दर्शन-सा तब, रत्न मनुज पाते हैं । क्षायिक सम्यग्दृष्टी नित प्रति, आत्म-ध्यान धरता है । जन्म जन्म के कर्मों को वह, क्षण में क्षय करता है। कों का स्वभाव नश्वर है-क्षयशाल है और जब व बिरने लग जाते हैं, नब ज्ञानी के हाथों में मानों एक अनुपम रत्न की प्राप्ति हो जाती है जिसे क्षायिक मम्यग्दशन कहते हैं। क्षायिक सम्यग्दनी पुरुप अपने स्वभाव के अनुरूप ही आत्म-अर्चना में मग्न रहना है, जिससे जन्म जन्म के मंचित कर्मों को वह अल्पकाल में ही नष्ट कर देता है और कंवलज्ञान लक्ष्मी का अधिपनि बनकर पंचमगति पा लेता है। मन सुभाव मंपिपनं, मंमारे सरनि भाव पिपन च । न्यान बलेन विसुद्धं, अन्मोयं ममल मुक्ति गमनं च ॥७॥ इस चंचल मन का स्वभाव है, नाशवान प्रिय भाई । नश्वर है मिथ्यादर्शन की, भी प्रकृति दुखदाई ।। आत्मज्ञान ही सरल शुद्ध, भावों को उपजाता है । सरल शुद्ध भावों के बल से, ही नर शिव पाता है । मन का स्वभाव भी नश्वर है, और मिथ्यादर्शन की प्रवृत्ति भी शाश्वत नहीं है, क्षीण होने वाली है। आत्मज्ञान से मन की प्रकृति और मिथ्यादर्शन की प्रकृति ये दोनों नष्ट हो जाती हैं और उनकी जगह सरल और शुद्ध भाव ग्रहण कर लेते हैं और इन सरल शुद्ध भावों के बल पर ही मनुष्य मुक्किलोक की अपार सम्पदा का अधिकारी बन जाता है । अतः शुद्ध भावों की जाग्रति एवं रक्षा और दिन प्रति दिन वृद्धि करनी चाहिये, बस यही मनुष्यजीवन की सार्थकता है, सारभूत पुरुपार्थ है, मोक्ष का उपाय है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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