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________________ ३४ सम्यक् विचार सम्यक्त्व शुद्धं मिथ्या विरक्तं, लाजं भयं गारव जेवि त्यक्तं । ते माल दृष्टं हृदय कंठ रुलित, मुक्तस्य गामी जिनदेव कथितं ॥ २६ ॥ " मिथ्यात्व को सर्वथा त्याग कर जो, नर हो चुके हैं सम्यक्त्व धारी । जिनके हृदय लाज, भय से रहित हैं, जिनने किये नष्ट मद अष्ट भारी || उनकी हृदय-सेज ही भव्य जीवो ! इस मालिका की क्रीड़ास्थली है । जिनदेव कहते उनके रमण को ही बस खुली शिवनगर की गली है ।" जिनके हृदय में 'शुद्ध सम्यक्त्व का सरोवर लहरें लिया करता है-संसार की विडंबनाओं से जो पूर्ण मुक्ति पा चुके हैं, तथा लौकिक लाज, भय और मदां से अपना पल्ला छुड़ा चुके हैं, हे श्रेणिक ! सुनो ! पुरुषों में ऐसे ही उत्तम पुरुष इतनी क्षमता रखते हैं कि इस अध्यात्म- माला को अपने वक्षस्थल पर सजा सकें और केवल वही पुरुष ही संसार सागर को पार कर मुक्ति नगर पहुँचने का सौभाग्य प्राप्त करने में समर्थ हो पाते हैं । जे दर्शनं ज्ञान चारित्र शुद्धं, मिथ्यात्व रागादि असत्य त्यक्तं । ते माल दृष्टं हृदयकंठ रुलितं सम्यक्त्व शुद्धं कर्म विमुक्तं ॥२७॥ शुचि, शुद्ध दर्शन, ज्ञानाचरण से, जिनके हृदय में मची है दिवाली । मिथ्यात्व, मद, झूठ, रागादि के हेतु, जिनके न उर में कहीं ठौर खाली || उनके हृदय कंठ पर ही निरंतर, ये माल मनहर लटकती रही है । वे ही सुजन हैं जिन शुद्ध दृष्टी, रिपु-कर्म से मुक्ति पाते वही हैं । दर्शन, ज्ञान, आचरण और वह भी सम्यक् की संज्ञा को प्राप्त हुआ ऐसे रत्नत्रय के संयोग से जिनका हृदय दीपावली के समान जगमगाया करता है, मिथ्यात्व भाव या खोटे-राग द्वेष को उत्पन्न करने वाले पदार्थों का मोह जिनमें रंचमात्र भी निवास नहीं करता, तथा राग द्वेष परिणतियों और असत्य को जो बिलकुल ही तिलांजलि दे चुके हैं, हे श्रेणिक ! ऐसे ही महात्माओं को यह सौभाग्य प्राप्त होता है कि वे उस अध्यात्म-माला के प्रसाद से अपने को कृत-कृत्य कर सकें ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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