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________________ श्री नारणस्वामी सम्यक विचार प्रथम धाग (पण्डिन पूजा) __ ओम् ओंकारम्य ऊर्वस्य, ऊर्च सद्भाव शाश्वतं । विन्दम्थानेन तिष्टते, ज्ञानेन शाश्वतं ध्रुवं ॥१॥ ओम् रहा है और रहेगा, सतत उच्च मद्भावागार । परमब्रह्म, आनन्द ओम् है. ओम् अमृत शून्य-आकार ॥ ओम् पंच परमेष्ठी मंडित, ओम् ऊर्ध्व गति का धारी । केवल-ज्ञान-निकुंज ओम् है, ओम् अमर ध्रुव अधिकारी । ओम् सनातनकाल से उर्ध्वगति का धारी रहा है, और रहेगा। ऊर्ध्व स्वामी तो यह है हो, किन्तु साथ ही माथ सद्भावों का धारी और शाश्वत भी है। इसमें शून्य को एक प्रमुख स्थान दिया गया है, और शून्य में इसका निवाम भी है, जिसका तात्पर्य यह है कि यह मुक्त है, म्वाधीन है। इसका वास व्यवहार दृष्टि से तो मोक्ष-स्थान में कहा जाता है जहाँ पहुँचने पर इसकी संसार-यात्रा समाप्त हो जाती है और फिर वहाँ से लौटकर नहीं आता, किन्तु वस्तुस्वरूप अथवा निश्चय दृष्टि से उसका अपना निवास तो अपने आपमें ही रहता है। भले ही वह आज हमारे इस शरीर में है और कल ( अगले जन्म में ) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अनुकूलता पाकर मोक्ष-धाम में जा विराजे। यही तो वह सिद्धांत है कि-"आत्मपरमात्मतुल्यं च विकल्प चित्त न क्रोयते" तथा ज्ञानों में सबसे श्रेष्ठ जो केवलज्ञान है उस ज्ञान से यह ओम् पद मंडित है और ध्रुव तारा के समान चमक कर संसार को अनादिकाल से सन्मार्ग बता रहा है और बताता भी रहेगा । हाँ, उसके बताए हुये मार्ग पर चलना न चलना हमारी इच्छा पर निर्भर है । चलेंगे तो संसार पार हो जायेंगे अन्यथा अनादिकाल से संसार में भटक रहे हैं और अनन्तकाल तक भटकते रहेंगे।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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