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________________ सम्यक् आचार ..... .२३१ उहिष्ट भोजन त्याग प्रनिमा उद्दिष्टं उत्कृष्ट भावेन, दर्सन न्यान संजुतं । चरनं सुद्ध भावस्य, उद्दिष्टं आहार मुद्धये ॥४३४॥ दर्शन. ज्ञानमयी चारित की, धरता जो नर माला । जिसके उर में श्रेष्ठ भाव नित, करते हैं उजियाला || जग से निर्मम ऐसा होता, जो श्रावक बड़भागी । होतो वह उद्दिष्ट अशन का, पूर्णरूप से त्यागी । जो श्रावक दर्शन ज्ञान के सहित शुद्ध चारित्र का पालन करता है तथा शुद्ध भावों का जो निधान होता है, वह ग्यारहवीं प्रतिमा में जाकर उस भोजन का सर्वथा त्यागी हो जाता है, जो किसी भी गृहस्थ के यहाँ उसके निमित्त से बनाया जाता है। अंतराय मनं कृत्वा, वचनं काय उच्यते । मन सुद्धं, वच मुद्धं च, उदिस् आहार सुद्धये ॥४३५॥ होता जो उद्दिष्ट अशन-त्यागी, प्रतिमाधर प्राणी । होता वह मन-शुद्ध, शुद्ध होती है उसकी वाणी ॥ मन, वच, कायिक होते जितने, अंतराय के दल हैं । उनका रखते ध्यान सदा ही, ये योगी पल पल हैं। उदिष्ट भोजन-त्याग प्रतिमा धारण करनेवाले मन शुद्ध, वचन शुद्ध तथा काया शुद्ध उत्कृष्ट श्रावक हुआ करते हैं। वे भोजन करते समय उन सभी अंतरायों का ध्यान रखते हैं जो मन वच तन इन तीनों में से किसी से भी सम्बन्ध रखते हैं, उनको बचाकर ही आहार करते हैं।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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