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________________ सम्यक् आचार २२३ अनुराग भुक्ति प्रतिमा अनुराग भक्तिं दिस्टं च, राग दोष न दिस्टते । मिथ्या कुन्यान तिक्तं च, अनुरागं तत्र उच्यते ॥४१८॥ राग द्वेष, कुज्ञान कषायें, जिसने छोड़ दिये हैं। जाग गये आतम चिंतन से, जिनके हृदय-दिये हैं। असत्, अनृत, त्रय शल्यों के दल, जिनसे दर विचरते । वे मानव अनुराग-मुक्ति, षष्ठम प्रतिमा हैं धरते ॥ जो रागद्वेष के विकारों से सर्वथा रहित हो जाता है; मिथ्यात्व और कुज्ञान जिससे भलीभाँति विलग हो जाते हैं तथा जिसका हृदयाकाश आत्मा के शुद्ध और प्रखर प्रकाश से जगमग कर उठता है, वही नर अनुराग भुक्ति प्रतिमा धारण करने के योग्य होता है। सुद्ध तत्वं च आराध्यं, असत्यं सर्व तिक्तयं । मिथ्या संग विनिर्मुक्तं, अनुराग भक्ति सार्धयं ॥४१९॥ शुद्ध तत्त्र का ही जिस उर में, शुचि निर्झर बहता है । असत्. अचेतन संगों से जो, दूर-दूर रहता है। मिथ्यादर्शन की जिस पर रे ! पड़ती छाँह न काली । वह ही जन अनुराग-भुक्ति-धर, होता गौरवशाली ॥ जो मनुष्य शुद्ध तत्त्व का आराधन करता है और असत्य अनृत पदार्थों के राग तथा तीन शल्यों के ताप से बिलकुल पृथक हो जाता है, वही अनुराग-भक्ति प्रतिमा धारण करने में समर्थ होता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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