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________________ सम्यक् आचार [२१५ दर्सन हीन तपं कृत्वा, व्रत संजम च धारना । चपलता हिडि मंसारे, जल मरनि ताल कीटऊ ॥४०२॥ सम्यग्दर्शन के बिन जो नर, जप, तप साधन करते । सामायिक श्रुत-पाठ-पठन कर, नित संयम आचरते ।। वे मानव उन ताल-कंटकों सी टोकर खाते हैं । सरवर तज, जो अन्य जलों में, शरण नहीं पाते हैं । जो मनुष्य बिना सम्यक्त्व-आधार स्थल के व्रत, तप, मंयम पाठ-पूजा व अन्य क्रियाएं करते हैं वे तालाब में से उखड़ी हुई उस सिंघाड़े की बेल के समान होते हैं, जो संसार के किसी अन्य जलाशय में, तीनों काल फिर आने के बाद भी, कभी शरण नहीं पाती है और इस तरह अपनी पूर्व स्थिति से हमेशा के लिये हाथ धोकर, संसार-सागर में भ्रमण मात्र किया करती है। दर्मनं स्थिरं जेन, न्यानं चरनं च स्थिरं । मंसारे तिक्त मोहंधं, मुक्ति स्थिरं सदा भवेत् ॥४०३॥ जिस उर में बहता ध्रव, निश्चल, शुचि सम्यक्त्व सलिल है। उस उर में रहता ध्रुव, निश्चल, ज्ञानाचार युगल है। जिसने इस मायावी जग से, अपना राग हटाया । उसने निश्चय ही ध्रव, निश्चल मुक्तिनगर को पाया ॥ जिसके हृदय में सम्यग्दर्शन का अविरल और अथाह स्रोत बहता है, उसका हृदय ज्ञान और चारित्र दोनों से भलीभांति परिपक्व हुआ करता है। बात यह है कि संसार की मूढ़ता में याने मिथ्यात्व में जो फंसा रहता है, वह तो संसार में ही फंसा रह जाता है और इससे विपरीत जो संसार से विलग हो जाता है अर्थात सम्यक्त धारण कर लेता है, वह ज्ञान और चारित्र से भी निर्मल होकर एकदिन मुनिसौख्य पाता और पाता ही है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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