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________________ २१०] . सम्यक् आचार दर्सन जस्य हृदयं च, दोष तस्य न पस्यते । विनास सकलं जानते, स्वप्नं तस्य न दिस्टते ॥३९२॥ जिसके अंतर में दर्शन का, होता शुद्ध बसेरा । दोषों की टुकड़ी न जमाती, फिर उस थल में डेरा ॥ दर्शनप्रतिमाधारी को जग, दिखता झूठी माया । जड़ द्रव्यों की उसे न दिखती, सपनों तक में छाया ।। जिसके हृदय में दर्शन का प्रखर प्रदीप जगमगाया करता है, उसे सांसारिक दोषों से रंचमात्र भी राग नहीं होता है। दार्शनिक संसार के सारे पुद्गल पदार्थों को क्षण भंगुर और विनाशीक मानना है और उसे ऐसे पदार्थ स्वप्न तक में भी अपनी ओर आकर्षित करने में सफल नहीं होते हैं। मंमिक्त दर्सनं सुद्धं, मिथ्या कुन्यान विलीयते । मुद्ध समय उत्पादते, रजनी उदय भास्करं ॥३९३॥ जिसके अंतर में बहती है, सम्यग्दर्शन-धारा । अनृत, अचेतन ज्ञान वहां से, हो जाता चिर न्यारा ॥ समकित-मणि से आतम में त्यों, हो जाता उजियाला । रवि आने पर ज्यों दिन होता, ढुल जाता निशि प्याला ॥ जिसके अंतर में सम्यक्त्व की शुद्ध धारा बहती है, मिथ्या ज्ञान उसके हृदय में क्षणमात्र भी नहीं ठहरने पाता है और जिस तरह प्रभात होने पर, निशा का साम्राज्य मिट जाता है और चारों ओर मुहावनी लाली छा जाती है, उसी तरह सम्यक्त्व के प्रभाव से प्रात्मा की विभाव परिणतियों का नाश होकर उसके चारों ओर शुद्धात्मा का शुभ्र प्रकाश छा जाता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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